देवभूमि में एक अनोखा मेला- पत्थरों का युद्ध ‘बग्वाल’

भास्कर समाचार सेवा

चंपावत।  यूं तो उत्तराखण्ड देवभूमि के नाम से मशहूर है। इसके हर कंकड़ में आप शंकर (भगवान) के होने की अनुभूति कर सकते हो। उसके प्रतिरूप यहां के लोंगो का सीधापन, अपनापन और कई दफा जीवन जीने के विविध रूप सहज ही अपनी ओर ध्यान खींचते हैं। परिवर्तन प्रकृति का नियम है और विविधता इसको जीने का सर्वोत्तम आकर देती है। यहाँ के रीति-रिवाज, परम्पराए, मान्यताए बहुत कुछ अपने आराध्य देवी व देवताओं, इष्टों के इर्द-गिर्द ही सिमटी रहती है। इसी तरह से एक अनोखी प्रथा का साक्षी है देवीधूरा का पाषाण युद्ध और पृथ्वी की प्रतीक बाराहीदेवी का मंदिर।

 पूरे राज्य में अत्यधिक लोकप्रिय है यहाँ का यह मेला। यह काली कुमाऊँ योद्धाओं का क्षेत्र है। यहाँ की सभी परंपराएँ शक्ति से जुड़ी हुई हैं। यहां का पाषाण युद्ध (बग्वाल) पूरे प्रदेश में विख्यात है जिसे अब प्रदेश में सांस्कृतिक उत्सव के रूप में मनाया जाता है।

लोहाघाट, हल्द्वानी, नैनीताल और अल्मोड़ा को जाने वाले राष्ट्रीय राजमार्ग में पश्चिम दिशा की ओर लोहाघाट से सिर्फ 45 किलोमीटर की दूरी पर कुमाऊँ का अत्यंत प्रतिष्ठित एवं सुप्रसिद्ध बाराही देवी का शक्तिपीठ देवीधूरा के नाम से प्रसिद्ध है। यह स्थान समुद्र सतह से 7000 फीट की ऊँचाई वाले धरातलीय उभार पर स्थित है। आज भी देवीधूरा के कई स्थानों में खेत बनाते या नए मकान की नींव खोदते समय मनुष्य की हड्डियों या कंकालों के अवशेष मिलते हैं। अंतरराष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त पुरातत्वविदों हेनवुड, ह्वीलर, नौटियाल आदि ने इसकी विस्तार से सूचना दी है।  उनका कहना है कि पश्चिमी रामगंगा, गगास नदी की घाटियों में मिलने वाले शवाधानों की शृंखला यहाँ तक फैली हुई थी।

कुमाऊँ के सभी शक्ति पीठ चारों ओर घने और प्राचीन देवदार वृक्षों के विस्तृत झुरमुटों के बिलकुल बीचों-बीच स्थित हैं। मंदिर में देवी की प्रतिमा न होकर दो विशाल शिलाओं के आपस में एक-दूसरे से प्राकृतिक रूप से सटे होने के कारण उनके मिलन स्थल पर स्वतः बने एक त्रिभुजाकार द्वार को देवी की योनि का प्रतीक मानकर पूजा जाता है। इन दोनों शिलाओं के बीच के खुले सँकरे मार्ग के एक ओर उन्हीं के आच्छादन में बैठकर पुजारी लोग भक्तों से देवी के लिए भेंट, उपहार आदि प्राप्त करते हैं। ग्रेनाइट की शिलाओं की यह प्राकृतिक बनावट ही मातृकुक्षि से बाहर निकलने का संकेत है। यह मार्ग इतना संकीर्ण है कि भीड़-भाड़ के दिनों में इससे एक ही ओर से निकला जा सकता है। यह माना जाता है कि आदिम मानव प्रजनन से संबंधित अंगों के प्रतीकों की पूजा किया करता था।

यहाँ पर इस बात को बताना भी रोचक होगा कि मंदिर में बाराही की शक्ति की पूजा की जाती है। संदूक में रखी गई मूर्ति को किसी को देखने नहीं दिया जाता है। इसको न दिखाए जाने का कारण कदाचित् यह हो कि मूर्ति में प्रदर्शित देवी मानव की आदिम अवस्था में हो। मूर्ति को बागड़ (क्षत्रिय) जाति का व्यक्ति नहलाता है। देवीधूरा में प्रत्येक वर्ष श्रावण की पूर्णमासी को ‘बग्वाल’ का प्रसिद्ध रोमांचक पत्थरों की मारामारी का प्रदर्शन होता है।  इसी को बग्वाल कहते हैं। इसकी तैयारी श्रावण मास की शुक्ल एकादशी से आरंभ होती है।  बगवाल के दिन अर्थात् पूर्णमासी को प्रत्येक बगवाली, जिसकी माता जीवित है, माँ का स्तनपान अवश्य करता है, चाहे बगवाली की अवस्था कितनी ही क्यों न हो क्योंकि देवी बाराही मातृस्वरूपा है. बगवाल में उसके बालक को कुछ भी हो सकता है, अतएव माता के स्तनपान से उसको बल मिलता है. इससे एक संदेश स्पष्ट जाता है कि नवजात शिशिओ के लिए माँ का स्तन पान कितना महत्त्वपूर्ण है।

पूर्णिमा के दिन द्योकों के झुंड-के-झुंड अपने-अपने टोली नायकों की अगुवाई में देवीधूरा को पैदल चल पड़ते हैं. इसके लिए किसी प्रकार की सवारी नहीं ली जाती. बगवाल में भाग लेने वाले प्रत्येक व्यक्ति के पास एक मजबूत लकड़ी का डंडा और बाँस या रिंगाल की खपच्चियों से बनी छतरी के आकार की बड़ी-सी ढाल होती है, जो बगवाल के समय पड़ने वाले पत्थरों से बचाने में सहायक होती है. यह एक प्रकार से बचने का कवच होता हैं.  बगवाली देवी के भक्त अपने सिर को किसी मोटे कपड़े से अच्छी तरह लपेटे रहते हैं ताकि पत्थरों से सिर की रक्षा की जा सके.

यह पाषाण युद्ध काली-कुमाऊँ के क्षत्रियों के चार खामों (घरानों) के बीच युद्ध की शक्ल में होता है. ये चार ‘खाम’ हैं – 1. चमियाल, 2. गहड़वाल, 3. लमकणियाँ और 4. लमगढ़िया. पूर्णिमा के दिन 12 बजे से लेकर 2 बजे तक मंदिर में पुरोहितों व पुजारियों द्वारा देवी की पूजा संपन्न की जाती है. मंदिर का प्रधान पुजारी मंदिर से शंखध्वनि करके बगवाल का उद्घोष कर देता है. इसके साथ ही मंदिर के पंडे-पुरोहित देवी से संबंधित पूजा के मंत्रों का जोर-जोर से उच्चारण करके वातावरण में अत्यधिक उत्तेजना भर देते हैं. शंखध्वनि कानों में पड़ते ही बगवाली देवी के भक्त अपने सामने पड़ने वाली दूसरी ओर की खामों पर पत्थरों की वर्षा आरंभ कर देते हैं.  बगवालियों के लिए नियम है कि वे दूसरे पक्ष के किसी व्यक्ति को लक्ष्य करके पत्थर नहीं चलाएंगे और न शत्रु-मित्र किसी की पहचान रखेंगे. चोट लग जाने पर भी किसी के प्रति द्वेष भाव नहीं रखा जाता, उसे देवी की इच्छा मानकर स्वीकार कर लिया जाता है. देखते-देखते दोनों ओर से पत्थरों की अंधाधुंध वर्षा होने लगती है. बगवाल जब अपने चरम पर होती है, दोनों ओर से बगवाली फर्रों (ढालों) की आड़ लेकर प्रांगण के केंद्र की ओर बढ़ते हैं. जो केंद्र पर पहुँच जाता है, उसे विजयी मान लिया जाता है. दोनों पक्षों के खामों के लोग प्रतिपक्षी खाम वालों के फर्रे व लाठियाँ छीनने का प्रयास करते हैं. जिस पक्ष की लाठियाँ तथा फर्रे छीने जाते हैं उसे हारा हुआ माना जाता है. 15-20 मिनट के बगवाल के निमित्त निर्धारित समय के व्यतीत हो जाने पर मंदिर के पुजारी बगवालियों के बीच जाकर देवी का तांबे का छत्र सिर पर ओढ़े, एक हाथ से चँवर (गाय की पूंछ,मंदिरो में इसे पवित्र समझा जाता है) हिलाते हुए बगवाल की समाप्ति का संकेत करते हैं. हालांकि यह अपने मूल रूप में योद्धाओं के अपनी आराध्य देवी के प्रति अपनी निष्ठा और भावनाओं तथा अपने शक्ति-प्रदर्शन का सबसे अच्छा साधन रहा होगा.

बदलते समय के साथ इसमें भी परिवर्तन आया है। अब पत्थरों की जगह फूलों से बग्वाल खेली जाती है और  रंगारंग सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित किये जाते है। जिससे किसी भी मेलार्थी, भक्त  पर चोट लगने का कोई खतरा नही रहता है।

अपने आप मे एक अनोखा ऐसा मेला शायद ही कही और देखने ,सुनने को मिलता हो जहाँ लोगों की आस्था इन रीति -रिवाज़ो  में सम्मिश्रित रहती हो और लोग बिना किसी भेदभाव के मिलजुल कर  इसमें भाग लेते है। सांस्कृतिक व सामाजिक विरासत को बचाने की  जरूरत है जिससे हमारी भावी पीढ़ी के पास  ये गौरान्वित क्षण  अक्षुण्ण रह सकें
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