बम से मारे गए इंदिरा सरकार के रेल मंत्री का राज़ आज भी है अनसुलझा

साल 1975 देश के रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र थे। प्यार से लोग इन्हें ललित बाबू कहा करते थे। 2 जनवरी 1975 को वह स्पेशल ट्रेन से समस्तीपुर रेलवे स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर उतरे थे। मौका था समस्तीपुर-मुज्जफरपुर ब्रॉड गेजलाइन के उद्घाटन का । वो शाम पांच बजे समस्तीपुर पहुंचे । प्लेटफॉर्म पर बड़ी संख्या में उनके समर्थक मौजूद थे।

वहां पर उनके भाई जगन्नाथ मिश्रा और एमएलसी रामबिलास झा के साथ कई और राजनेता भी मौजूद थे। उद्घाटन के बाद एक सभा का भी आयोजन किया गया था। जैसे ही पौने छह बजे ललित नारायण मिश्रा ने अपना भाषण बंद किया वैसे ही मंच पर एक जोरदार धमाका हुआ। इस धमाके में ललित बाबू के पांव में बम के छर्रे लगे थे।

वहीं उनके भाई जगन्नाथ मिश्रा और बाकी नेताओं को भी चोटे आईं । ललित बाबू होश में थे और उन्होंने कहा कि जिस स्पेशल ट्रेन से वो आए हैं उसी से उन्हें दानापुर रेलवे अस्पताल ले जाया जाए, लेकिन पता नहीं क्यों दो घंटे तक ट्रेन वहीं खड़ी रही और रात आठ बजे दानापुर के लिए रवाना हुई । रात बारह बजे ट्रेन दानापुर पहुंची । अस्पताल में मौजूद डॉक्टरों ने बताया कि रेल मंत्री का ऑपरेशन करना होगा और ऑपरेशन के दौरान ही तत्कालीन रेल मंत्री ललित नारायण मिश्रा की हालत बिगड़ने लगी और सुबह करीब साढ़े नौ बजे डॉक्टरों ने उनकी मौत की घोषणा कर दी।

ललित बाबू की मौत कोई आम घटना नहीं थी। वो न केवल ताकतवर नेता थे बल्कि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बेहद करीबी थे । आनन-फानन में जांच सीबीआई के हवाले की गई। बिहार सीआईडी को भी जांच में सीबीआई की मदद करने के लिए कहा गया। कुछ लोगों को हिरासत में लिया गया लेकिन मामला आगे बढ़ा ही नहीं तभी मई 1975 में सीबीआई के हाथ आए दरभंगा के पीडब्ल्यूडी दफ्तर से बर्खास्त क्लर्क मदन मोहन श्रीवास्तव उर्फ विशेषश्वरानंद । विशेषश्वरानंद को वायदा माफ गवाह बना दिया गया और उनके इकबालिया बयान के आधार पर सीबीआई ने संतोषानंद, सुधेवानंद, रंजन द्विवेदी और विक्रम नाम के आनंद मार्गियों को गिरफ्त में ले लिया। इनमें रंजन द्विवेदी तो सुप्रीम कोर्ट में वकालत करते थे।

सीबीआई का केस उस वक्त और भी मजबूत हो गया जब विक्रम ने भी विशेषश्वरानंद की तरह से अपना गुनाह कबूल कर मजिस्ट्रेट के सामने बयान दे दिया। विक्रम के बयान के मुताबिक रंजन द्विवेदी ने उसके अलावा संतोषानंद और सुधेवानंद को ललित बाबू की सभा के पास मुहैया कराए थे। एक-एक हैंड ग्रेनेड से लैस तीनों आरोपी मौके पर पहुंचे । सुधेवानंद ने बम फेंका और तीनों मौके से भाग निकले , उसी दौरान विक्रम ने अपना ग्रेनेड प्लॉटफार्म नंबर तीन के पास मीटर गेज लाइन पर फेंक दिया।

सीबीआई ने ये भी खुलासा कि सुधेवानंद और संतोषानंद ही वो शख्स थे जिन्होंने 20 मार्च 1975 को दिल्ली के तिलक मार्ग पर सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस ए.एन. रे की कार पर बम फेंके थे लेकिन बम नहीं फटने की वजह से जस्टिस बाल-बाल बच गए। विक्रम इस मामले में भी आरोपियों के खिलाफ वायदा माफ गवाह बना। जस्टिस रे वाले मामले में तो तीनों आरोपियों को 28 अक्टूबर 1976 को उम्रकैद की सजा भी सुना दी गई।

सीबीआई की बातों पर अगर भरोसा किया जाए तो पूरी साजिश आनंद मार्ग के मुखिया आनंद मूर्ति की गिरफ्तारी का बदला लेने के लिए रची गई। आनंद मूर्ति को 1971 में पटना में गिरफ्तार किया गया था। सीबीआई के मुताबिक आनंद मूर्ति के शिष्यों ने अपने गुरु की जमानत के लिए सुप्रीम कोर्ट तक गुहार लगाई लेकिन अपील नकार दी गई। सीबीआई की दलील के सामने आनंद मार्गियों को कौन बेकसूर मानता, खासकर तब जब देश में आपातकाल लागू हो। आरोपियों के मुताबिक, उन पर आनंद मूर्ति के खिलाफ इकबालिया बयान देने का जबरदस्त दबाव था।

धीरे-धीरे वक्त गुजरता गया और वो दिन भी आया जिस दिन इमरजेंसी हटी और इंदिरा गांधी की जगह मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने और बिहार में कर्पूरी ठाकुर मुख्यमंत्री बने। आरोपियों ने फिर गुहार लगाई । खुद ललित नारायण मिश्रा के परिवारवालों ने सीबीआई जांच पर शक करना शुरू कर दिया। वारदात में मारे गए ललित नारायण मिश्रा की पत्नी ने तो बकायदा प्रेस कॉन्फ्रेंस कर इस बात का ऐलान कर दिया कि उनके पति की हत्या के पीछे आनंद मार्गियों का हाथ नहीं है बल्कि ये राजनैतिक हत्या है।

उसकी सबसे बड़ी वजह ये थी कि आनंद मार्गियों को गिरफ्तार करने से पहले सीबीआई ने फरवरी में ही कुछ और लोगों को भी ललित नारायण मिश्रा की हत्या के मामले में गिरफ्तार किया था । सीबीआई ने 3 फरवरी 1975 को अरुण कुमार मिश्र नाम के शख्स को सबसे पहले ललित नारायण मिश्र हत्याकांड में गिरफ्तार किया था और अरुण कुमार मिश्र की निशानदेही पर उनके एक साथी अरुण कुमार ठाकुर को भी दो दिन बाद यानी 5 फरवरी 1975 को गिरफ्तार किया था।

अरुण कुमार ने कोर्ट में अपने दिए बयान में कहा था कि 30 दिसंबर 1974 को अरुण कुमार मिश्र ने उसको बताया कि ललित नारायण मिश्र की समस्तीपुर रेलवे स्टेशन पर होने वाली सभा में बम फेंकना है। इस काम के लिए बॉस झा पैसा देंगे । अरुण कुमार मिश्र ने ये भी बताया कि बॉस दो जनवरी को आएंगे तब वो उसे बॉस से मिलवा देगा। इसके बाद मिश्र और ठाकुर अपने एक साथी शिव शर्मा के पास तीन हैंड ग्रेनेड लेकर दो जनवरी को समस्तीपुर रेलवे स्टेशन पहुंचे।

बयान में ठाकुर ने बताया कि वारदात के दिन तय हुआ था कि शिव शर्मा सबसे पहले ग्रेनेड फेंकेगा, अगर बम नहीं फटा तो फिर वो दोनों ग्रेनेड फेंकेंगे। अरुण कुमार मिश्रा ने ही दोनों को सभा का पास दिया था। ठाकुर ने बयान में कहा कि भाषण खत्म होने के बाद जैसे ललित नारायण मिश्र मुड़े तो शिव शर्मा ने ग्रेनेड का पिन खींचकर उसे मंच पर लुढ़का दिया धमाका होते ही तीनों वहां से भाग निकले। हालांकि बाद में ठाकुर के मुताबिक उसने ये बयान में दबाव में दिया था।

सवाल ये था कि आखिर एक ही साजिश के अलग-अलग आरोपी कैसे हो सकते हैं । इसका जवाब ये था कि अरुण कुमार ठाकुर का बयान 21 फरवरी 1975 को रिकॉर्ड किया गया था जबकि विक्रम को 21 जुलाई 1975 को गिरफ्तार किया गया था और 14 अगस्त 1975 को विक्रम का इकबालिया बयान दर्ज किया गया। यानी विक्रम ने जो कहा वो चार महीने पहले हुबहू अरुण कुमार ठाकुर ने सीबीआई को कहा था।

हालांकि सीबीआई का इस मामले में दावा था कि उसे अरुण कुमार मिश्र और अरुण कुमार ठाकुर के खिलाफ और सुबूत नहीं मिले जिसकी वजह से उन्हें छोड़ना पड़ा । हालांकि, यहां भी पेच है क्योंकि एक चश्मदीद शंकर साह का बयान है कि दोनों अरुण न केवल मौका-ए-वारदात पर मौजूद थे बल्कि उसने दोनों को भागते हुए भी देखा था।

सीबीआई की थ्योरी को सच भी मान लिया जाए कि साजिश विशेषश्वरानंद और उसके आनंद मार्गी साथियों की थी न कि अरुण कुमार मिश्र और अरुण कुमार ठाकुर की तो भी इस सवाल का जवाब कौन देगा कि जिस विशेषश्वरानंद उर्फ मदन मोहन श्रीवास्तव को 1968 में जिस नौकरी से बर्खास्त किया गया उसकी बहाली अचानक मई 1975 में कैसे कर ली गई।

इससे भी सबसे चौंकाने वाली बात ये है कि श्रीवास्तव ने अपनी बहाली से महज एक दिन पहले यानी 12 मई 1975 को आनंद मार्गियों के खिलाफ अपना बयान दर्ज कराया था? इन्हीं खामियों को देखते हुए बिहार की सीआईडी ने भी मामले की जांच करनी शुरू की तो सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट में अर्जी लगाकर मामले की सुनवाई दिल्ली ट्रांसफर करा ली ताकि बिहार सीआईडी मामले की तफ्तीश ही न कर पाए।

बाद में तफ्तीश के दौरान ये भी पता चला कि जिस बॉस झा का नाम मामले का आरोपी अरुण कुमार मिश्र ले रहा था वो दरअसल बिहार के ही एमएलसी रामबिलास झा थे। अरुण ने ये भी बताया कि रामबिलास झा और ललित नारायण मिश्रा के रिश्ते बहुत अच्छे हुआ करते थे लेकिन बाद में इनमें खटास आ गई और रामबिलास झा ललित बाबू से नफरत करने लगा। लेकिन क्या एक एमएलसी एक रेल मंत्री को अपनी साजिश का शिकार बना सकता था । जब बिहार सीआईडी ने मामले की तफ्तीश को और आगे बढ़ाया तो सामने आया यशपाल कपूर का नाम ।

यशपाल कपूर उस वक्त इंदिरा गांधी के ओएसडी थे । सीबीआई की जांच से उस वक्त के मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर भी संतुष्ट नहीं थे और उन्होंने जानेमाने वकील तारकुंडे से इस मामले में रिपोर्ट देने को कहा। तारकुंडे ने अपनी रिपोर्ट में न केवल यशपाल कपूर पर शक जताया बल्कि उन्होंने तो प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के भी इस मामले में ज्यादा रुचि दिखाने पर सवाल खड़े किए।

साल 2014 में दिल्ली के एक ट्रायल कोर्ट ने इस मामले में चार लोगों को उम्र कैद की सजा सुनाई लेकिन साल 2015 में दिल्ली हाईकोर्ट ने इस मामले में दोषी पाए गए सभी लोगों को सुबूतों के अभाव में बरी कर दिया। कमाल की बात ये है कि इस मामले में ललित नारायण मिश्र के परिवार वाले ही उन आनंद मार्गियों को उनकी हत्या का जिम्मेदार नहीं ठहराते बल्कि उनकी अंगुलियां तो उस पार्टी की ओर उठती है जिसके ललित नारायण खुद इतने बड़े नेता और सरकार में रेल मंत्री थे।
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